Saturday, July 15, 2017

चोरी आत्मा को शक्तिहीन बना देती है।

सत्य धर्म का आठवां आधार है चोरी न करना। चोरी दृष्ट तथा अदृष्ट दो प्रकार की होती ह। दृष्ट चोरी में चोर किसी दूसरे के अधिकार की वस्तु को अपने अधिकार में ले लेता है, परंतु गुप्त रुप से या छुपाकर। ऐसी चोरी संसार में अत्यंत निंदनीय कार्य है। यह मान प्रतिष्ठा को खो देने वाली क्रिया है। इसके लिए दंड का विधान भी किया गया है। चोरी के अपराध का दंड लोक तथा परलोक दोनों में ही मिलता है। लोक में दंड देने का कार्य अधिकार प्राप्त व्यक्ति करते हैं तथा परलोक में यही कार्य देवता करते हैं।

लोक में लोगों की आयु सीमित है तथा थोड़ी है, परंतु परलोक में अधिक है। यहां पर होंगे हुए कष्टों की भी सीमा है, परंतु परलोक के कष्टों की सीमा नहीं बताई जा सकती है। शास्त्रों के अनुसार नरकों में दुष्ट आत्माएं कष्ट भोगती रहती हैं तथा कष्ट भोग कर पृथ्वी लोक में मूढ़ योनियों में जन्म लेती रहती हैं। इस प्रकार सृष्टि में जीव का जन्म और मृत्यु होती रहती है। दृष्ट चोरी को मानव किसी दूसरे से तो छुपा सकता है, परंतु ईश्वर से कभी नहीं छुपा सकता है। ईश्वर जीव के प्रत्येक कर्म का साक्षी है। इसलिए, ऐसा संभव है कि मानव, लोक में किसी प्रकार का यत्न अथवा चापलूसी से दण्ड से बच भी जाए, परंतु ईश्वरीय दंड से वह कदापि नहीं बच सकता है।

अदृष्ट चोरी में मानसिक चोरी होती है, जैसे असत्य, अयथार्थ, अथवा असपष्ट भाषण, कुविचार, कुदृष्टि या गुप्तवार्ता। अदृष्ट चोरी यद्यपि सपष्ट अपराध नहीं मानी जा सकती परंतु यह अधर्म है, इसलिए योग मार्ग में बाधक है। ईश्वर की साधना करने वाले योगी को अपना आचरण स्वच्छ व पवित्र रखना चाहिए। किसी भी अपराधिक कार्य में उसको प्रवृत्त नहीं होना चाहिए। किसी भी प्रकार की चोरी आत्मा को शक्ति हीन बना देती है, जबकी योगी का उद्देश्य शक्ति का संचय है। शक्ति जब अधिक हो जाती है, तभी वह अलौकिक कार्य कर सकती है।

इस प्रकार शक्ति संचय करते-करते योगी सर्वशक्तिमान हो सकता है तथा वह इस लोक में अनोखे तथा अलौकिक कार्य कर सकता है। उसकी सामर्थ्य अन्य लोगों से अधिक हो जाती है। परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि वह सब कुछ कर सकता है, सब कुछ करने वाली तो परम शक्ति ही है।

परमहंस जिदानन्द

No comments:

Post a Comment

Paramhans Jiddanand